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दशमसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

हरिपद-छन्द

1.
दय उपदेशराति रानी कैं चिन्ता हुनक हटौलनि
उठि भोरे मिथिलेश अपन सब प्रातकृत्य निपटौलनि।
उचित विमर्शहेतु निज जनसौं सभाभवन सजबौलनि
सकल विज्ञ पुरजन पुरहित कैं मानसहित बजबौलनि॥

2.
सबसौं भूपति वचन मधुर मृदु कहलनि विनय बनौने
मान्य! बन्धुजन! हम अपने कैं छी अहिहतु बजौने।
निजसम्बन्धि काज होसे जौं अपन बुद्धि सौं साधी
तौं भेनहु किछु हानि, बुझैअछि नहि समाज अपराधी॥

3.
परसम्बन्धि काजकैं जे क्यौ अपनहि मतैं करै छथि
लाभैं नहि यश, किनतु हानिमे अपयश बीच पड़ै छथि।
तैं तहि रूप काज में पहिने मिलि निजवर्ग विचारी
जे सबहिक सम्मति हो तकरा तहीरूप निरधारी॥

4.
हमर प्रनक अनुसार वीरगन आबि यत्न कै थकला
धनुष चढ़ायब दूर रहल, क्यौ टारिमात्र नहिं सकला।
की करतब अहिठाम आब ई आयल विषय विचारक
विधिवश भेल समागम संगहिं दशरथराजकुमार क॥

5.
“अछि सीता-अनुरूप गुन बल वैभव श्रीरामक”
निरखि निरखि नरनारि बजैअछि बालवृद्ध अहिठामक।
तनिक वरन यदि करथि कुमरितौं परन अपन हम त्यागी
हो अपने सबहिक अनुमति तौं नहिं हम दोषक भागी॥

6.
प्रत्युत पुण्यवान अपनाकैं भाग्यवान अति मानी
कौसिक मुनि सौं लय विचार पुनि सविधि स्वयंवरठानी।
कहलनि कय विचार सबजन सुनि उचित कथा मिथिलेशक
राजन्! मत अपनेक साधु ई अनुमोदित भरि देशक॥

7.
देखि सुछवि रविसदृश तेज तनु सुन्दरता शतकामक
करिकर उपम विशाल बाहुयुग जितगजगति गति रामक।
अनुपम अंग अंग प्रति झलकित धीरवीरजन लक्षन
अति अद्भुतटटके सुनि पुनि मुनिजनयागक रक्षन॥

8.
अछि विश्वास हृदय सबहिक यदि मुनि अनुशासन पौता
तौं जगविदितसुयश रघुकुलभव धनुष अवश्य उठौता।
कहल जाय मुनिसौं तैं देखथु रघुवर शम्भुशरासन
कयलनि पूजन जकर सकल सुरसहित विष्णु कमलासन॥

9.
स्वेच्छहि धनुष उठाय लेथि तौं सुरभि सोन में मानव
नहि तों धनुषक प्रन हँटाय पुनि सविधि स्वयंबर ठानब।
अहिरूपक सिद्धान्त भेल थिर सबजन सहमत भेला
कौसिक मुनिक समीप प्रमुखजनसहित भूप उठि गेला॥

10.
कय अभिवादन कुशल पूछि पुनि बजला नृप मृदुवानी
मुनिवर! रघुकुलरत्न बन्धुयुग आयल छथि ममधानी।
जनिक पूर्व पुरुषक अति उज्ज्वल हमसब सुयश सुनैछी
यथाशक्ति सतकार तनिक तैं करतब अपन बुझैछी॥

11.
किन्तु जनिक घर अछि परिपूरित सब पदार्थ संसारक
अशन वसन मनि हेमरतनमय भूषण सकल प्रकारक।
कोन वस्तु सौं तनिक समर्चन करब तृप्त पुनि की दय?
छी गरीब हम हुनक आगु ई जानि हमर मन सीदय॥
12.

अछि अतिरिक्त हमर घर चानन फूल दीप ओ धूप क
दैवदयावश एकमात्रटा वस्तु हिनक अनुरूपक।
करइत शोधन यज्ञभूमि सौं सुतारत्न हम पौलौं
सहित सनेह सकल परिजन मिलि मुदमन पोसि बढ़ौलौं॥

13.
शील सनेह शक्ति सुन्दरतासिन्धु सकलगुनआगरि
सकल कला कृतिकुशल सुमतिछथि नारिसमाज उजागरि
अपन किशोर अवस्थहि में जे दिव्य चरित दरसौलनि
गिरि सम गुरुतर शम्भुशरासन विनु आयास उठौलनि॥

14.
तहि दिन कयल प्रतिज्ञा हम जे “जे क्यौ धनुष उठाबथि
अपन बुद्धि विद्यावल गुन सौं सीता कैं वश लाबथि।
हयता से सुर-असुर मनुज वा पानि महक अधिकारी
नहि अयोग्य वर वरव जानि, वरु रहती कुमरि कुमारी॥

15.
सुनि प्रन हमर विदेश देश सौं सकल वीरवर अयला
नहिं उठाय सकला क्यो जन, क्यौं दूरहि परखि पड़यला।
से छथि कुमरि कुमारि नारिजनरत्न मुनीश्वर! घर में
सकल हुनक अनुरूप रूप-गुन देखी श्रीरघुवर में॥

16.
विधिवश छथि कुमार अविवाहित तैहम वरय चहैछी
सुतारत्न हम अपन समर्पन विधियुत करय चहैछी।
देखथु धनुष, उठाय सकथि तौं होय हमर प्रनरक्षन
नहि, तथापि ई करथि कृपाकय पाणिग्रहण विचक्षन”॥

17.
धनुष उठायब में राम क प्रति सुनि सन्देह क वानी
नहिं सहि सकला वालस्वभावहि रघुवंशज अभिमानी।
उठि सहसा कय जेठ भाय ओ मुनि कौसिक कैं राजी
लछुमन बजला “छमा होय तौं हम अहिठाँ किछु बाजी॥

18.
राखि सोन धधकैत आगि में स्वर्णकार तपबै अछि
पीटि हथौरी सौं निहाई पर धय पुनि-पुनि ठठबै अछि।
नहिं मलान मुख होय, किन्तु ओ तखन दुसह दुख पाबै
जखन तराजू पर तकरा क्यौ रत्ति क संग चढ़ाबै॥

19.
नृपवर! अपने अपर वीर सम रघुवंशिहुकैं जानल?
देखि चारि पद पुच्छ, हरिन ओ सिंह तुल्यबल मानल।
मुरइ समान मेरु पर्वत कैं जे जन तोड़ि सकै अछि
मुष्टि प्रहार मात्र सौं हिमगिरि कनकन फोड़ि सकै अछि॥

20.
लय पृथिवी कैं हाथ गेनवत सहसा फेकि सकै अछि
खसय गगन सौं रविमण्डल तौं जे पुनि टेकि सकै अछि।
से उठाय सकता धनु वा नहिं? ई मन में जे आनल
गज मृणाल कैं तोड़ि सकत वा नहिं अपने से जानल”॥

21.
वजइत लछुमन कैं उत्तेजित अविरत वाक्य क धारा
चुप रहवाक हेतु नयनहिं सौं कैलनि राम इसारा।
सुनि स्वातिक घनरव चातकवत जनक मुदितमन भेला
किन्तु सिंहरव सुनि गीदरवत दुर्मद नृपति नुकेला॥

22.

बजला मन विचारि कौसिकमुनि उचित वचन तहिकालक
“छमब मान्यमिथिलेश! हिनक ई प्रखर बात बुझि बालक”
कथन सकल अपनेक उचित ओ सत्य हिनक ई वानी
तदपि सतत सहसा अहिरूपक कहब अनवसर जानी॥

23.
बाजी प्रिय से सतत सत्य, पुनि नहिं कटु सत्य वखानी
नहिं प्रिय फुसि वचन बाजी ई धर्म सनातन मानी।
बाजथि नहिं किछु धीर पुरुष तैं कय निज कृति दरसाबथि
अवसर पर मृदु मधुर सत्य कहि सबहिक हृदय जुड़ाबथि॥

24.
वचपनवश वजला लछुमन जे तकर रोष नहि मानब
“सकलस्वभावसिद्ध गुन थिक” ई जानि दोष नहि मानब।
राम वत्स! उठि देखि अहाँ झट शम्भुक धनुष उठाबू
सिद्धिशिखर पर जनकमनोरथ कैं गुनसंग चढ़ाबू”॥

25.
बजला विनत भावसौं आज्ञा पाबि राम मृदु बानी
गुरुजन-आशीर्वाद मात्र कैं सिद्धिमूल हम जानी।
गुरुक कृपा सौं सहज मूक जन वेद पुरान पढ़ै अछि
आन्हर देखय बहिर सुनय ओ पङगु पहाड़ चढ़ै अछि॥

26.
विनु गुरु आशिष सौं बड़-बड़जन तृण नहि मोड़ि सकै अछि
गुरुबल छुद्रो जन्तु धनुष की हिमगिरि तोड़ि सकै अछि।
ई कहि सानुज अतिप्रसन्नमुख कय गुरुपद युग वन्दन
चलला सहित जनक जनमण्डल धनुष निकट रघुनन्दन॥

27.
आगू-आगू मुनि कौसिक ओ नृपति तदनु दुहु भ्राता
तहिपाछाँ पुनि अगनित दर्शक लोकक लागल ताँता।
तौं होइत उपमा तहि सुन्दर दृश्यक गगनाधारा
गुरुकवि निकट चन्द्र रवि संगहि यदि उगैत सब तारा॥

28.
तजि-तजि घर पुर नगर नारिनर सकल धनुष लग गेला
सुनि-सुनि देश-विदेश क जन पुनि ततय उपस्थित भेला।
भेला भीर विलोकि मनहि मन चकित गुरू ओ चेला
बुझि पड़लनि अति तुच्छ त्रिवेनीतीरक कुम्भक मेला॥

29.
सुर किन्नर गन्धर्व अप्सरा सिद्ध नाग यक्षादिक
सकल सुगन मुदमगन गगनबिच अयला पुनि लक्षाधिक।
यथायोग्य आसनदय सबकैं राजपुरुष बैसौलनि
‘जय हो रामसहित मिथिलेशक’ सबजन मनहिमनौलनि॥

30.
मिथिलाधीश ततय पुनि कौसिक मुनि सौं आज्ञा पौलनि
अतिसमीप लय जाय रामकैं शम्भुधनुष दरसौलनि।
रामक कोमल कमलकान्त तनु, धनुष मेरुसन भारी
दहलि रहल छल देखि ततय सब जनकपुर क नरनारी॥

31.
क्यौ बजली “सखि! नृप बताह छथि आबहु प्रन कैं त्यागथु
बाढ़नि झाँटथु एहन बुद्धि कैं लोहधिपाकय दागथु।
ठोर क दूध मलिन नहिं जनिकर भेल पम्ह नहिं जनिका
कोन ज्ञान सौं धनुष उठाबय कहलनि सबक्यौ तनिका॥”

32.
बजली दोसरि “चुप्प रहह सखि! एहन कथा जुनि बाजह
जे करैत छथि करथु भूप, तों मंगल हुनक मनावह।
ने तौलै छह अपन बुद्धि कैं जे मन अबउ बकै छह
ककरा सौं की हयत कखन से तों की जानि सकै छह?॥

33.
बीतभरिक आँकुश होइछ से गजकैं विवश करै अछि
रत्तीभरि लुत्ती लगितहि वन कोसक कोस जरै अछि।
गेनकतुल्य सूर्य सौं होइछ नाश विशाल अन्हार क
तनिकहि वंशक थिका राम ई मुनिजनसंकटटारक”॥

34.
देखि रहल छल विविध दृष्टिसौं विविध रूप श्रीराम क
छला चन्द्रबनि राम, सुजन गन बनि चकोर तहि ठामक।
नारिक नयन समक्ष मनोहर नवल मूर्ति शतकामक
खलक-पलक विकराल कालसम छल स्वरूप बलधामक॥

35.
शिशुक दृष्टि में पिता सदृश ओ युवजन लोचन सोदर
ज्ञानिक हृदय इष्ट सम, मूढ़ क मानस मनुज मनोहर।
अपन भावना-सदृश सकल जन राम क रूप परेखथि
दरपन में जहि रूप सकल जन रूप अपन सन देखथि॥

36.
उपचित चन्द्र भानु, जनिउपचय धनुष लग्न शुभदायक
जानि सुलच्छन छनपितर क पुनि देखि धनुष रघुनायक।
प्रथम अपन कुलप्रथम पुरुष कैं लखि उन्नत पथ जाइत
कै प्रणाम गुरुचरण राखि मन मन्द-मन्द मुसुकाइत॥

37.
बजला “करइत छी प्रयास हम पहिने धनुष उठावक
तौलि सकब तौं करब यत्न पुनि डोरी उपर चढ़ावक।
किन्तु कतय हम तुच्छ, कतय पुनि अति गुरु चाप महेशक
चाही आशीर्वाद सकलजनसहित मान्य मिथिलेशक”॥

38.
कहि धनुष उठाय चढ़ाबथि जावत गुन तहि ऊपर
टूटि खसल ता घोर शब्द युत तीन खण्ड भय भूपर।
मानु त्रिलोक क विजय सूना कैलक ई श्रीरामक
डगमग धरती भेल लोक सब चकित रहल तहिठामक॥

39.
उछलल जलधि चलल दिग्गजगन फनिराजक फन फूटल
सकल खलक दुर्मदबल गौरव धनुषक संगहि टूटल।
लोटपोट भै खसल कते पुनि चोट कते कैं लागल
लछुमन राम जनक कौसिक तजि इतर धैर्यकैं त्यागल॥

40.
श्रवण सुखद से शब्द सुधासन सुनितहि सहित सहेली
सतीशिरोमाि सुन्दरि सीता सुख क समुद्र समेली।
सुनि घनघोर सोर मोरकवत मुदित हृदय नरनारिक
भेल दशा दुरजनक मूसवत सुनि रव ‘म्याँउँ’ बिलाड़िक॥

41.
छल छनभरि ई विध विसमय पुनि भेल समय आनन्दक
भेला मोदक उदधि मगन नृप लखि बलरघुकुल चन्दक।
पाबि प्रान लहि अमृत मृतकवत मुदित भेल सब दर्शक
रानि सुनयना नयन नीर भरि आयल अतिशय हर्षक॥

42.
निरखि गगन सौं मगन मोद बिच सुमन बरिसौलनि
मुनिपदपंकज परसि, रामकैं भूपति हृदय लगौलनि।
बजला सविनय हर्ष सहित- “सब हमर मनोरथ पूरल
मुनि! अपने क दया सौं सबहि क गेल आश पुनि घूरल॥

43.
अति आश्चर्य अचिन्त्य अलौकिक देखल रामक लक्षण
कय स्वकुल-अनुकूल कृत्य ई भेल हमर प्रनरक्षण।
भाग्यवती छथि सुता हमरि जे राम सदृश पति पौती
अछि विश्वास हृदय निज कृति सौं दुहुकुल सुयश बढ़ौती॥

44.
हमर प्रार्थना मानि एतय झट आब अवधपति आबथि
मुदित वधू वर कैं आशिष दय सविधि विवाह कराबथि।”
सुनि कौसिक मुनि ‘एव मस्तु’ कहि कहलनि सचिव बजाबू
कय विचार झट दु्रतगति रथसौं बुझनुक दूत पठाबू॥

45.
सिद्धाश्रम सौं मिथिला आगम कुशल सहित श्रीरामक
कहथु जाय वृत्तान्त आदि सौं अन्त सकल अहिठामक।
ई कहि लछुमन राम सहित मुनि निज वासस्थल गेला
हितजन सहित जनकनृप-दम्पति परममुदितमन भेला॥

46.
वीना मुरज मृदंग आदि सब बाजन बाजय लागल
नगरक सकल नारि नर घरघर मंगल साजय लागल।
तावत प्रखर अखिनकर दिनकर गगन मध्य उठि ऐला
मानु स्ववंशज रामकृत्य लखि परम समुन्नत भेला॥

47.
सुजनक मुखक समान ततय सब सरक सरोज फुलायल
दुर्मदनृपक संग कोटरविच सकुचि उलूक नुकायल।
आगत नृपतिसंघवत छाया जनक (जनसमूह) पैरतर आयल
सकल कुगर्विक होससंग सब ओस सुखाय विलायल॥
हृदय हर्षउच्छ्वासपवन मृदु शुभ शीतल बहरायल
जनक-सहित सुजनक छल तन मन दुपहरिअहुँ ठण्ढ़ायल।
हेमन्तक आगमन समय छल खलदल तदपि घमालय
तरुणतरणि कर त्यागि ताप जनु दुष्टक हृदय समायल॥48॥

सवैया -

चापविभंगज शब्द्कसंगहि दुन्दुभि दानववैरि बजौलनि
सिद्धसकिन्नर अप्सर रामकजैधुनि संगसुमंगलगौलनि।
जे पशुकीट पतंगततै सब से कलकूजि प्रमोद जनौलनि
मानववृन्द गोसाउनिकैं अपना-अपना घर जाय मनौलनि॥

श्रीरामक करकृत धनुष-भंग क कथा बखान।
अम्बचरित मे भेल ई दशमसर्ग अवसान॥10॥