फिर दस्तक दी शाम ने, औ चाँदनी का सहरा हुआ
आहिस्ता खुला एक दर, और अँधेरों का पहरा हुआ
फिर बज़्म ने बेसुकून सी याद को मेहमान किया
के जा-ब-जा चल पड़ा- लमहा हर ठहरा हुआ
यह सर्द रातों का है, कोहराम-ए-वीरानियाँ
किसने देखा है कब- ओस का रंग गहरा हुआ
ज़ुल्मतों की मेहरबानियाँ, खामोशियाँ, तन्हाईयाँ
के कोई क्या जाने है रात नम किसका चेहरा हुआ
ऊंची दीवार कर, दरवाज़ा-बंद रहते हैं जो
'नीना' उनसे पूछो किस वक़्त दिन सुनहरा हुआ