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दहके दिगंत / राजा खुगशाल

हम एक-दूसरे से पूछते हैं समय
कष्टोंी को कंधों पर लाते हुए
एक-दूसरे के अंधेरे में रहते हैं
समय के बारे में किसी से कुछ न कहते हुए

छोटी-छोटी इच्छाेओं के अलावा
एक भी संस्म रण नहीं है दिनचर्या में
न किन्नंर देश की कहानियाँ
और न उन ठठेरों के किस्सेी
बरतन बेचकर खेलते हुए बच्चोंह को
चने बांटकर जो अपने देश लौट जाते थे
मछुओं के कहकहे भी नहीं
जो शामों को जाल समेटते थे नदियों से

सुबह की तयशुदा बातें छिन्नन-भिन्नँ होती हैं दिन-भर
शाम के लिए बचती हैं कुछ चिंताएँ
धूल-धक्कहड़ से सने हुए दु:ख
जीवन के सूखे पहाड़, चटियल मैदान
और तंद्रा की सपाट लय
गिरती हुई अंधेरे के समुद्र में

रोशनी नहीं होती तब भी नहीं छिपते दंश
सड़कों और पगडंडियों पर
कछारों से चले गए होते हैं चरवाहे
कविता में बड़े होते हैं आने वाले दिनों के सपने
मेहनतकश हाथों के करीब हर समय होती है कविता

आकार ग्रहण करता है समय
यहां से शरु होती है दौड़ और यहीं खत्म होती है रोज
एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे में खुलती है रात
हल्लाध मचता है और अपने रंगों में आती हैं चीजें

कोई सुख किसी कि दु:ख को बढ़ाता है जब
मैं पत्थदर की तरह लुढ़कना चाहता हूं
शब्दोंख के साथ गूंजना चाहता हूं सहनशीलता के सन्नाीटे में

फसल के बीच यादों की थकी दोपहर
जंगल में क्योंो ढूंढती है मुझे
मैं नहीं हूं किसी दरख्त की छाया

पहाड़ों से मैदानों तक दरारें हैं
खंदके हैं, खाइयाँ हैं
चट्टाने हैं चारों ओर
आग है, राहगीर हैं
आवाजों से भरे हुए चारागाह
खेत-खलिहान और बगीच हैं
जलती हुई मशालें
घर्रघर्राती हुई मशीनें हैं
सान पर चढ़े लोहे की तरह तमतमाते हुए
सुलगते हुए
जरूरतों के सामने बुझते हुए लोग हैं

मगर गायब हैं खेतों से अन्न की खुशियाँ
खलिहान में खिलखिलाती है दोपहर
जंगल की घास में गूंजते गीतों का दर्द
टूटन है कविता में
बर्फ में सिर्फ शब्दोंे का मूक संसरण

जमीन के चप्पेफ-चप्पेक से उठती हुई कुदाल की खनक
कि पहाड़ से उतरकर बदला है नदी का मिजाज
बड़ी मछली छोटी मछली
तटों को समझ आती है लहरों की भाषा
रोशनी के धुंधलके में जहां वर्तमान के हाथों से
भविष्यक गढ़ते हैं हम

अंधेरी बस्तियों में
धुएँ से भरे हुए मैदानों में तंबू तने हुए हैं
कंटीले तारों पर सूख रही हैं वर्दियाँ

दहशत में या चुप्पीख के आगोश में होता है जब शहर
देश और दुनिया में उड़ती हुई कोई खबर
कुछ देर के लिए चुपके से ठहर जाती है
कई-कई कुनबों के बीच

नदी उफनती है
टूटते हैं खेतिहर सपने, तहस-नहस होती हैं फसलें
सुबह फिर रोप दिए जाते हैं ऊसर में भविष्यी के प्राण
नदी की सनसनाहट में जहां सन्नााटा घुलता है
वहीं ढह जाते हैं खेत
मेहनत कराह उठती हैं मेंड़ों पर अकाल गूंजता है

उमड़ता-घुमड़ता है जीवन का सूनापन
चुप रहना कठिन है जहां चट्टानों से बहती हुई नदी
संसार को जिंदगी देते हुए श्रम
कठिन है जीवन के लहकते दिन
चीड़ों से छनती धूप में
या आरों के आर-पार गूंजता समय
पेड़ होते हुए पौधों के साथ तने हुए
अपने आप से पूछते हैं हम
कि अभावों में क्योंक बजती है भावों की बांसुरी
आँगन से खेतों तक इठलाती हुई धूप में
अंधेरे में कदम-कदम पर टोहती हैं विपन्नंता को
संपन्न ता की बनैली आँखें

तार-तार हुए सेमल के फूल छितराए पाखों पर
साहस के पांव रपटे
श्रीमंत-सामंतों के शिकंजे नजर आए
झंझाओं के झापड़ पड़े कनपटियों पर
प्रति‍कूलता की उठती आँधी में रह-रहकर दहके दिगंत।