दहक रहा है, दहक रहा है, दहक रहा है
घना अंधेरा अब धरती की अतृप्त कोख में।
सूर्य बुलाता है तुमको, जागो। बहक रहा है
मन मीरासी नित। छोड़ूँ यश-लिप्सा, थोक में
जो मिलती है रंगे होठों से। कहता हूँ
दृढ़ता से जागो, जागो! कुचले ही तृण हों
चाहे वसन्त में, अंदर पके व्रण हों।
क्यों न अभी भी लोहा बनकर ही दहता हूँ।
काट दिए पेड़ हरे। सुखा डाली हैं
बारहमासी नदियाँ। करूँ क्या इसे दोआब
जो उजड़ चुका है पहले ही। नए ख़्वाब
हैं। चाहे विरल सूर्यकांत मणि जो पाली है।
क्या सचमुच चिनगारी अन्दर बुझी हुई है
न दे दिखाई मुझे, रुद्र आँख खुली हुई है।