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दाँतो की संधियाँ / शिवशंकर मिश्र

प्या र जो शाम कभी दे गयी,
सुबह दबा ले गयी!

हर एक आँख घूम-नाच रही,
हर एक कंठ भरा चीख से,
खलनायक दिखा रहे मंच से
दृश्यक तवारीख के;
कुर्सियाँ ढीली हैं, गोल,
मंजिल जो मिली, वही--
राह चुरा ले गयी!

जला कभी दीप जो प्रलयी हवाओं में,
गुमसुम में खो गया,
पीड़ाएँ रहीं कभी जिस की धरोहर थीं,
दिल वही रो गया ;
संधियाँ ढँके हुए दाँतों की,
मुश्किल हैं नन्हेद दराँतों की,
और हर बार जली आग जो--
धुँआ उड़ाके गयी!