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दाग / अमरजीत कौंके

लगता था
उसके जाने के बाद
पृथ्वी थम जाएगी
ऋतुओं का चक्कर रुक जाएगा
सूरज चाँद हो जायेंगे
मद्धम से
समंदरों में
रेत भर जाएगी
सारी पृथ्वी पर
काली गहरी रात पसर जाएगी

लेकिन
कहीं कुछ नहीं हुआ
पृथ्वी उसी तरह घूमती रही
ऋतुएं उसी तरह आती जाती रहीं
चमकते रहे चाँद सूरज
पक्षी चहकते फूल टहकते
चढ़ते रहे दिन और रात
उसी तरतीब में

सब कुछ वैसे का वैसा था
सिर्फ मन पर एक ज़ख्म के
हल्के से दाग के सिवा...।