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दादाजी कहते थे / गोरधनसिंह शेखावत

दादाजी कहते थे-
“थोड़ा रुको,
रुको बच्चों !
समय आयेगा
और उदित होगा
सोने का सूरज
इसी जंगल में
तब तक तुम
खड़े रहो- धैर्य के साथ ।”

एक दिन
जंगल में
आंधी के बवंडर से
अंधेरे ने पंख फैला दिये
कुछ नहीं दिखता
और न ही मन में सजगता आई
चारों तरफ़ सुनाई दी
मनुष्यों की भयंकर आवाजें
तरह-तरह के मनुष्य
और तरह-तरह की बोलियां
फिर चिल्लाना
और लूट-खसोट
तलवार से काट रहा
एक मनुष्य
उन सभी को ।

बंदूकों की आवाजों से
कांपती रही रात
जगते रहे पशु-पक्षी
थर-थर्राते करते
सुबह का इतंजार
अजीब चित्र है यह
छिप गया पाहड़
ध्वस्त हो गए जंगल
टूट गया भ्रम
मनुष्यता के पहरेदारों का

दादाजी कहते थे-
“थोड़ा रुको,
रुको बच्चों !
समय आयेगा
और उदित होगा
सोने का सूरज
इसी जंगल में
तब तक तुम
खड़े रहो- धैर्य के साथ ।”

अनुवाद : नीरज दइया