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दादी / रवि प्रकाश

मेरी दादी की आँखों पर होता है

मोटा धुंधले शीशों वाला चश्मा

जिसकी कमानी में एक डोर बंधी है

जाती है जो पीछे की ओर

दूसरी कमानी की तरफ

और बाध देती है दादी के पुरे सर को

उसके अन्दर से पुरे घर को देखती हैं दादी की आँखे


कितनी बार कहा इस लड़के से

सूरज नारायण को उगते ही जल दे दिया कर,

अन्न छु लिया कर,

दातून कर लिया कर,

रोज़ एक ही प्लास्टिक मुह में डाल लेता है

फिर थककर कहती कि `जुग जमाना बदल गयल ह`

दादी का चश्मा


मेरी दादी के पास होती है एक छड़ी

ब्रज के बांसों वाली, खोखली नहीं

जिसके सहारे लगा आती हैं

पुरे घर का चक्कर !

देख आती है गैया को

दे आती हैं अपने हिस्से का कुछ भोजन

इसी डंडे के सहारे

जैसे हांक आती हैं आधुनिकता को

दादी कि छड़ी

मेरी दादी के पास होता है एक हुक्का

जिसपे चढ़ती है कुम्हार कि चीलम,

चूल्हे की आग,

बनिए का तम्बाकू,

और हाँ बढई का शिल्प,

घुडघुडा कर जब दादी इसे पीती थी

कितनी उर्जा मिलती थी उनको

दादी का हुक्का

दादी की मृत्तयु पर टिखटी के सिरहाने

हमने लाकर रख दिया था

दादी का चश्मा ,

दादी की छड़ी,

और दादी का हुक्का

और लेजाकर वो सब विसर्जित कर दिया

सरयू में

जिसके सहारे दादी लड़ती थी

बाज़ार और बाजारुपन से !