बेटियाँ कहाँ अपना हक मांगती हैं
दानवीर कर्ण-सी बस देना जानती हैं
छुटपन में जब उसका खिलौना टूट जाता
रो-रो कर वह फिर सबसे रूठ जाता
मनाने की बारी फिर बहन की आती
अपनी सबसे प्यारी गुड़िया दे के मनाती
मां के बाद दे कर मुस्कराना वही जानती है
बेटियाँ कहाँ अपना हक मांगती हैं
दानवीर कर्ण-सी बस देना जानती हैं
तमाम उम्र वह करती समर्पण
निभाती है सारे किरदार बड़े सलीके से
मगर सम्बंधों की बाड़ कहाँ लांघती है।
बेटियाँ कहाँ अपना हक मांगती हैं
दानवीर कर्ण-सी बस देना जानती हैं॥