दास्तां दलितों की अगर पूंछेंगे हमसे
आंख में दहकता, शोला जलाना होगा
बारूद की होली में, खंजर की पिचकारी
घोड़ों की टाप से, सजा गुलशन मिटाना होगा
बुनियाद की नीचे बिछी बारूदी सुरंगे
खून से लाशों की दरिया बहाना होगा
यह कौन अपने धर को वीरान कर दिया
साजिश की किताबों को खोज लाना होगा
आंखों की बात कानों के रास्ते भूलोगे
जून के बारुद को, वापस ही लाना होगा
मेरे वजूद को खण्डहर बनाने वालों को
यादों की शूली पर फिर से चढ़ाना होगा
अकसर बुलंदी का क्यों नाम मेरे खाई है
इन्हीं गहराइयों से हमें खोज लाना होगा
मिटाओ पत्थर से हाथों की लकीरें सब
‘बाग़ी’ अब वह सम्यक, भारत बनाना होगा