कहाँ रह गया आज आदमी चाबी भरा खिलौना है।
जितना ऊँचा समझ रहे थे वह उतना ही बौना है।
हुए संकुचित उत्सव सारे मंद मांगलिकता लगती
रहे औपचारिकता में बस क्या शादी क्या गौना है।
छलिया बनकर छले अनेक साधक हैं अपने युग के
राजनीति अब त्याज्य हो गयी इसका रूप् घिनौना है।
घोड़ा तो है दौड़ नहीं पायेगा पर यह जीवन भर
इसके पैरों में कसकर के लगा गृहस्थी दौना है।
भय का पहरा है जुबान पर हिल डुल सकती नहीं सखे।
घोर विवशता के कारण फुटपाथ हो गया मौना है।
कहाँ प्रभाती मधुर उभरती? कहाँ नदी निर्मल बहती?
कहाँ वेद की मुखर ऋचाएँ? कहाँ यहाँ मृगछौना है?
कहाँ चाँदनी की चादर है जिसे ओढ़ ह मसो जायें?
कहाँ हरित दुर्वा का कोमल-कोमल रहा बिछौना है?
कैसे भला बचेंगे युग की नजरों से युग के बच्चे?
सपने में भी नहीं लगाया जाता उन्हें दिठौना है।