Last modified on 11 अगस्त 2012, at 16:12

दिति कन्या को / अज्ञेय

 
थोड़ी देर खुली-खुली
आँखें मिलीं
बिजलियों से दौड़े संकेत
सदियों की, संस्कारों की
नींवे हिलीं
अभिप्रेत हुए प्रेत
न देहें हिलीं-डुलीं
न कोई बोला,
गुँथ गयीं दो दुरन्त
जिजीविषाएँ
फिर पलटीं तुरन्त :
सहजता पर
हम लौटे आये।

कौंध में
मैं ने पहचाना
मेरे भीतर जो असुर है
रुँधा, छटपटाता
प्रबल, पर भोला।
क्या ठीक उसी क्षण
तुम ने भी
ओ दिति-कन्या
अपने मन की
धधकती गुहा का
द्वार खोला?
अपने को माना?

नयी दिल्ली, 20 जुलाई, 1968