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दिनरात / अनुभूति गुप्ता

आओ बैठोः
क्षण भर समीप मेरे।

चलो
मिल जुलकर हल कर लेते हैं,
उलझे हुए से ये संवाद अपने।

जाँच लेते हैं,
घटते-बढ़ते हुए से
दिन-रात अपने।
खोज लेते हैं,
तरीका कोई अनोखा
कल्पनाओं की खदानों से।
ले आते हैं खींचकर,
पुरानी पड़ी हिचकियाँ
नम सिसकियाँ
खंडहर पड़े मकानों से।