Last modified on 30 सितम्बर 2015, at 03:21

दिन इमली से / हरीश निगम

अम्माँ!
लिखा-पढ़ी के दिन क्यों
लगें न अच्छे?
सुबह देर तक
मन करता है सोने को
हँसते-हँसते
यूँ ही अकसर रोने को।
अम्माँ कहाँ गए वो
पल छिन सीधे-सच्चे?
पास बड़ों के बैठो तो-
टोका जाता,
साथ मिनी के खेलो तो
रोका जाता।
अम्माँ!
बड़े हुए हैं, फिर क्यों
रहें न बच्चे
धूप, हवाएँ
चाँद, फूल सब सपनों से।
आँखें रीत नहीं पाती हैं, सपनों से।
अम्माँ!
दिन इमली से झरते कच्चे पक्के!

-साभार: किशोर साहित्य की संभावनाएँ, सं. देवेंद्र देवेश, 204