अनमनी हवाएँ हैं डूबते खजूरों पर
एक व्यथा उग आई
ताल के किनारों पर
परछाईं पसर गई
जलकुईं-सिवारों पर
मटमैला धुआँ उठा गाँव-गली-घूरों पर
गंधहीन साँसों का
एक दिवस और कटा
लंबी इस यात्रा का
थोड़ा दुख और बँटा
टिक गईं थकी यादें दिन-ढले कँगूरों पर
उतर आईं सडकों पर
रेशम की मीनारें
डरकर खामोश हुईं
खंडहर की दीवारें
रंगमहल के सपने लद गए मजूरों पर