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दिन फागुन के / बुद्धिनाथ मिश्र

फागुन के दिन बौराने लगे
फागुन के ।

दबे पाँव आकर सिरहाने
हवा लगी बाँसुरी बजाने
दुखता सिर सहलाने लगे
फागुन के ।

रंग-बिरंगा रूप सलोना
कर जाता दरपन पर टोना
सुलझा मन उलझाने लगे
फागुन के ।

रति-सी लाज घोल तालों में
अँगड़ाई लिपटी डालों में
जलपाखी अलसाने लगे
फागुन के ।

ताम्रपत्र अमराई बाँचे
सुधि-सुगंध भर रही कुलाँचें
टेसू प्यार जताने लगे
फागुन के ।

उमगी-उमगी नदी फिरेगी
अंग-अंग सौगन्ध भरेगी
आना, जब दुबराने लगे
फागुन के ।