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दिन बीता लो आई रात /वीरेन्द्र खरे अकेला

दिन बीता लो आई रात
जीवन की सच्चाई रात
 
अक्सर नापा करती है
आँखों की गहराई रात
 
सारी रात पे भारी है
शेष बची चौथाई रात
 
मेरे दिन के बदले फिर
लो उसने लौटाई रात
 
नखरे सुब्ह के देखे हैं
कब हमसे शरमाई रात
 
बिस्तर-बिस्तर लेटी है
कितनी है हरजाई रात
 
सोए नहीं 'अकेला' तुम
फिर किस तरह बिताई रात