दिन हुए ऐसे नुकीले,
रक्त से हैं पाँव गीले ।
सामने है रोशनी पर
आँख के आगे अंधेरा,
खोजता था मैं निशा में
चैत का मधुमय सबेरा;
गंध फूलों की उठी पर
इस तरह तिरछी हुई-सी,
प्राण से लग कर हृदय में
गँथ गई बरछी हुई-सी ।
किस तरह तन कर खड़े हैं,
जो दिखे थे कल लजीले ।
यह मरू है, जानता हूँ
पर कहीं तो धार होगी,
दिष्ट गीता तो रचेगा
क्या हुआ जो हार होगी;
मैं भगीरथ-वंश का हूँ,
कृष्ण मेरे पूर्वजों में,
स्वर्ण के कण बह रहे हैं
स्वर्णरेखा के रजों में ।
लड़खड़ाए, पर गिरे न,
प्राण, तुम भी हो हठीले !