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दिल्ली / लीलाधर मंडलोई


मैं दिल्‍ली में हूं और मेरा मन कहीं
कहां हूं मैं और ये जिंदगी मेरी
कि जैसे रेशा-रेशा बिखरने को यहां

किसे कहूं
दोस्‍त वो कौन हो कि जो आधी रात को
तवज्‍जो दे कि मैं कितनी तकलीफ में सचमुच
ये कैसा डर मैं ऐसा सोचता हूं
कि मेरे इस तरह बेवक्‍त फोन करने से
कहीं खत्‍म न हो बची-खुची दुआ-सलाम

फिर भी उठाता हूं फोन कि इतना बेबस
और घुमाता हूं जो भी नंबर
वह दिल्‍ली का नहीं होता
वह दिल्‍ली का क्‍यूं नहीं होता ?
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