गली में गुल्ली-डण्डा खेलते हुए
गुल्ली दिल्ली तक उछालने की
बोलता था भाषा
तब से सुन रहा हूँ तुम्हारी महिमा
कब से सुनता आया हूँ
दिल्ली बहुत दूर है
और अब मैं हूँ
दिल्ली के चमचमाते रास्ते पर
फिर भी नहीं लगती मुझे दिल्ली अपनी
राजधानी की शान-ओ-शौकत में
घुटती है देहाती जान
रास्ते पार करते
कस कर लगते ब्रेक
थाम लेते हैं मेरी कलेजे की धड़कन
चौराहे दर चौराहे बन्दूकधारी
न जाने क्यों
देखते हैं मुझे सन्देह की नज़रों से
इस संसद भवन के दरवाज़े पर
लगी हैं ‘कितनी चौखटें?
जेब की चिल्लर को भी फासँ लेते है
यहाँ के मेटल डिटेक्टर
लोकतन्त्र के मन्दिर को घेरे
सुरक्षाकर्मी
किसकी असुरक्षा की गवाही दे रहे है ?
मुझे याद आता है
उस महात्मा का चेहरा
क्या उसे भी गुज़ारना पड़ता
धातुखोजक फ्रेम से होकर?
क्या उसके खुले बदन पर,
धोती पर
घुमाया होता
धातुखोजक यन्त्र
क्या धातुखोजक यन्त्र खोज पाता
उसके
मन में छिपे अहिंसा के विस्फ़ोटक को?
संसद के बाहर हैं इने-गिने लोग
और भीड़ है सुरक्षाकर्मियों की
सीमा पर तैनात जवानों को मिले कुछ आराम
क्या इसलिए देश के भीतर है यह असुरक्षा?
अनुभव है
कि वर्दी के भीतर भी होता है इनसान
उसी से निकल आई एक पहचान
अपने गाँव-गबीले के जावन की
यार बहुत ख़ुश हुआ
चल पड़ी बातें कुशल-क्षेम की
बरसात-पानी की,
यहाँ-वहां की, मज़े की
फिर शौक एक दूसरे के
गाँव आते वक़्त
दो बोतल ले आना, कह दिया
फौजियों को सस्ते में मिलती है
वह ख़ुश हुआ
कहने लगा ज़ोरदार पार्टी करेंगे !
मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत