मैं
अपने हृदय के तट पर
बहती धारा को देखता जाऊँ
ताकता जाऊँ
क़ुदरत की कविता को देखूँ
निर्मल-निर्मल जल को देखूँ
चित के इस दर्पण को देखूँ
लहर-लहर इक विस्तार लेकर
हर ओर
हर रुत एक उमंग है
हर धरे में एक तरंग है
और इन
लहरों के काँधों पर
शायद तुम हो
आशाओं का चप्पू लेकर
भावनाओं की नैया लेकर
और इस सागर जल के नीचे
लहरों के भीतर ही भीतर
दुःख और दर्द
दब सा गया है
चुप सा गया है
और मैं
इस झील के तट पर
लहरों के विस्तार को देखूँ
नैया और मंझधार को देखूँ
रोता जाऊं
नीर बहाऊं
मेरा अंग-अंग लोचन बन कर
रोता जाए
इतने नीर बहाए
कि पलक झपकते ही
एक झील बन जाये
नीरों का।
(मेरी पहली हिंदी कविता - 1983)