दिवाकर !
अजब है तू
और तेरा प्यार ।
सुबह उषा के साथ
जागता है
भोर के संग खेलता है
और फिर
सारे दिन
हजारों किरणों के साथ
मनाता है
रंगरेलियाँ
या फिर
घन बालाओं के साथ
करता है
अटखेलियाँ ।
दिन ढलते ही
चल पड़ता है
पश्चिम की ओर
थाम कर
सन्ध्या सुंदरी का हाथ
और फिर
गर्क हो जाता है
सांवरी निशा की
बाहों में ।
ये कैसा है
तेरा प्रीति भण्डार
जो लुटाता रहता
उन्मुक्त हो कर
सभी पर
फिर भी
नहीं होता रिक्त .....