लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!
उषा-वधू के अवगुंठन-सा है लालिम गगनाम्बर
मैं मिट्टी हूँ, मुझे बिखरने दो मिट्टी में मिल कर!
लो यह मेरी ज्योति दिवाकर!
मैं पथ-दर्शक बन कर जागा करता रजनी को आलोकित-
या मैं अनिमिष रूपज्वाल-सा किये रहा शलभों को विकलित;
यह मिथ्या अभिमान नहीं मुझ को छू पाया क्षण-भर।
लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!
छोटा-सा भी मैं हूँ खर-रवि का प्रतिनिधि काली तमसा में-
रक्षक अथक खड़ा हूँ ले कर उस की थाती मंजूषा में;
नहीं रात-भर जगा किया हूँ इसी मोह में पड़ कर!
लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!
मैं मिट्टी हूँ पर यह मेरी अचिर साधना की ज्वाला है
मैं ने अविरल अपनी आहुति दे-दे कर इस को पाला है,
स्रष्टा हूँ मैं, यदपि सफल मैं हुआ सृजन में जल कर!
लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!
जान किसी अनथक ज्वाला से दीप्त तुम्हारी भी है छाती
मैं ही तुम को सौंप रहा हूँ यह अपने प्राणों की थाती,
मूल्य जान कर इस का रखना उर में इसे बसा कर!
यह लो मेरी ज्योति, दिवाकर!
ज्योति तुम्हारी अक्षय है पर जला-जला कर नहीं बनी है-
और इधर यह शिखा कम्पमय-यह मेरी कितनी अपनी है!
मैं मिट्टी हूँ, पर तुम होओ धन्य इसे अपना कर!
यह लो मेरी ज्योति, दिवाकर!
उषा-वधू के अवगुंठन-सा है लालिम गगनाम्बर-
मैं मिट्टी हूँ, मुझे बिखरने दो मिट्टी में मिल कर!
यह लो मेरी ज्योति, दिवाकर!
गुरदासपुर, 27 अप्रैल, 1935