देहरी पर जलता दीपक
निपुण जुलाहे सा है
निरन्ध्र आस्था से कात रहा है प्रकाश...
इन्ही प्रकाश की आँकी बाँकी डोरियों से
वो बुनेगा एक झीनी केसरिया चादर
ओढ़ायेगा सूनी सहमी कालिमा को...
तब तिरेगी किलक इस शून्य में...
कोई मस्तक टेकेगा इस देहरी पे...
कोई प्रगट करेगा अनुग्रह
कि इसी दिपती झिपती उजास ने
उसे ठोकर से बचाया है...