दीवारों पर खूँटी, कील-सा ठुका हूँ मैं!
चुनने को कहते
चुन लेता सिंहासन।
आधा अब धँसा हुआ;
आधा कुंठित मन।
डूंगर सूखे अकाल भील-सा झुका हूँ मैं!
उगे नहीं शालबीज
मंत्रित कर बोया था,
आँख बचा बाहर से
भीतर मन रोया था;
आते-जाते समाधि खेत पर रुका हूँ मैं।
जंग लगी बाहर से,
भीतर दीमक चाटे,
खँडहर हुए ये दिन
भय भरते सन्नाटे;
ब्याज अभी बाक़ी है मूल भर चुका हूँ मैं।