Last modified on 1 मार्च 2009, at 15:08

दुःख के पहिये पर / केशव

बड़े से बड़ा दुःख भी
खोलता है
मुख की
गाँठ
धीरे
धीरे
बजने शुरू होते हैं जब
ढोल मजीरे

पास ही कहीं
अलाव सेंकते
कठ
प्रभु को गाली देने को
तैयार
बदलते हैं नियति की परिभाषा

उन्हें वही दिखाना है
जिसके लिए जारी है
एक के बाद एक यात्रा
अँधेरे को चीरती हुई

दुःख के चेहरे पर
एक खुरदुरे जर्जर हाथ की
चपत से भी
फ़ूटने लगती है रोशनी
और पाँव
रेत से बने पुल पर से
गुज़रने के लिए
कर देते हैं इंकार
कहीं से उड़ता हुआ रेत का एक कण
घुसता है आँख में
ओर
अपने हथियार संभाल लेते हैं
बस्ती के सिपाहासालर

पर अब उन्हें
कौन रोकेगा
जो हो चुके हैं
दुःख के पहिये पर सवार