दुःख जहाँ गहरा हुआ है,
मन वहीं ठहरा हुआ है ।
राग दीपक-आग-उत्सव
मेघ के आँसू बरसते,
हैं हिन्डोले पर कपाली
फूल खिलने को तरसते;
दूर तक मधुमास का है
कुछ नहीं आभास होता,
इस तरह से भी कहीं क्या
कूक का उपहास होता !
पूर्णिमा की रात में ही
चाँद-मुँह उतरा हुआ है ।
खोह में तम का तमाशा,
क्या यही है भोर आया!
राग भैरव के बहाने
सृष्टि भर का शोर आया ।
नित्य क्या है, क्या नहीं है
आज तक न जान पाया,
जब उठाया कीर को तो
हाथ में एक पंख आया ।
एक हाहाकार दोलित,
मौन भी पसरा हुआ है ।