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दुआ जीने की ... / सुरेश स्वप्निल

अश्क अपनी पे उतर आएँ तो क्या कीजिएगा
रूह के ज़ख़्म उभर आएँ तो क्या कीजिएगा

कोई सदमा<ref>आघात</ref> हो कोई ग़म हो तो रो भी लीजे
चश्म<ref>नयन</ref> हर बात पे भर आएँ तो क्या कीजिएगा

लाख गिर्दाब<ref>भँवर</ref> करें ग़र्क़<ref>जलमग्न</ref> हमें दरिया<ref>नदी</ref> में
डूब कर हम जो उबर आएँ तो क्या कीजिएगा

हम शबे-वस्ल<ref>मिलन की रात</ref> गुज़ारा करें तन्हा-तन्हा<ref>अकेले</ref>
और वो वक़्ते-सह् र<ref>उषा के समय</ref> आएँ तो क्या कीजिएगा

बदगुमानी<ref>असन्तोष</ref> में कई दोस्त ज़ेह् न<ref>मस्तिष्क</ref> से निकले
अब वही दिल के शह् र आएँ तो क्या कीजिएगा

आपका हक़ है शबे-वस्ल के हर लम्हे पर
ख़्वाब दिन में ही नज़र आएँ तो क्या कीजिएगा

रोज़ देते हैं हमें आप दुआ जीने की
रोज़ इज़राइल<ref>मॄत्युदूत</ref> इधर आएँ तो क्या कीजिएगा ?!

शब्दार्थ
<references/>