वे दुख हैं
जो आदमी को जीने नहीं देते
आदमी की तरह
जो आदमी को अलग करते हैं आदमी से
जो आदमी को जितना माँजते हैं
उतना ही मलिन करते हैं
वे दुख हैं
जो आदमी को कसते हैं
नई-नई कसौटियों पर, जो आदमी को
न घर पर रहने देते हैं चैन से, न बाहर
जो आदमी से छीन लेते हैं
आदमी का हुनर
जो आदमी के हाथों से छीन लेते हैं काग़ज़-क़लम
और बेख़ौफ़ पसर जाते हैं शब्दों पर
वे दुख हैं
जो दोस्त नहीं, दुश्मन हैं आदमी के
जो कोल्हू के बैल की तरह घुमाते हैं
छक्के छुड़ा देते हैं आदमी के
वे दुख हैं
जो अनाज से भूसे की तरह फटकते हैं धैर्य को
जो दिन-रात तोड़ते रहते हैं आदमी की कुव्वत को
जो पतझर के पत्तों की तरह
सुखा देते हैं सम्वेदना को ।