बड़े से बड़ा दुख भी
खोलता है
सुख की
गाँठ
धीरे
धीरे
बजने
शुरू होते हैं जब
ढोल मजीरे
पास ही कहीं
अलाव सेंकते
कण्ठ
प्रभु को गाली देने को
तैयार
बदलते हैँ नियति की
परिभाषा
उन्हें वही दिखना है
जिसके लिए जारी है
एक के बाद एक यात्रा
अँधेरे को चीरती
दुख के चेहरे पर
एक खुरदरे हाथ की
चपत से भी
फूटने लगती है रोशनी
और पाँव
रेत पर बने पुल पर से
गुज़रने के लिए
कर देते हैं इनकार
कहीं से उड़ता हुआ रेत का एक कण
घुसता है आँख मेँ
और
अपने हथियार सँभाल लेते हैँ
बस्ती के सिपाहसलार
पर अब उन्हें
कौन रोक सकेगा
जो हो चुके हैँ
दुख के पहिए पर सवार