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दुग्धवर्णा चाँदनी / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

बिछ रही है देह
भू पर,
दुग्धवर्णा चाँदनी की।

बाग भर में पात केले का
अकेला हिल रहा है,
प्रस्फुटन का प्रथम ताजा कम्प
जैसे मिल रहा है;
शिथिल होती जा रही है,
आन्तरिकता-
यामिनी की।

स्वस्थ शीशम
वह खड़ा निर्लिप्त-सा
जो संयमी है,
बात क्या? निस्पन्द गुमसुम
टीस क्या, कैसी कमी है,
लग रही मुस्काना उसकी
कुछ प्रयत्नज-
म्लान फीकी।

पढ़ चुका चुपचाप झुकती-
डालियों के व्यथित मन को,
एक कोई दर्द
व्याकुल कर रहा पूरे चमन को;
मौन कोई
मुखर कोई
गूँथता है जलन जी की।