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दुनियां में / नज़ीर अकबराबादी

की वस्ल<ref>मिलन</ref> में दिलबर ने इनायत, तो फिर क्या?
या जु़ल्म से दी हिज्र<ref>जुदाई</ref> की आफ़ात<ref>आफतें, परेशानियाँ</ref>, तो फिर क्या?
गुस्सा रहा, या प्यार से की बात, तो फिर क्या?
गर ऐश से इश्रत में कटी रात तो फिर क्या?
और ग़म में बसर हो गई औकात, तो फिर क्या?

मजनूं की तरह हमने अगर दिल को लगाया।
बेचैन किया रूह को और तन को सुखाया।
दिलबर ने भी लैला की तरह दिल को लुभाया।
जब आई अजल फिर कोई ढूंढा तो न पाया।
क़िस्सों में रहे हुर्फ़ो<ref>बातें</ref> हिकायात<ref>कहानियाँ</ref> तो फिर क्या?

जिस शेख परी ज़ाद की आ दिल से हुई चाह।
हर रोज मिले उससे, रहे ऐश के हमराह।
हंसना भी हुआ, बातें भी अच्छी हुई दिलख़्वाह<ref>दिल को पसन्द आने वाली</ref>।
हल बोसो किनार और जो था, उसके सिवा आह!
गर वह भी मयस्सर<ref>हासिल</ref> हुआ, है हात तो फिर क्या?॥3॥

थे वह जो दुरो लाल<ref>पद्मराग</ref> से बेहतर लबो दन्दा<ref>दांत</ref>।
आखि़र को जो देखा तो मिले ख़ाक में यक्सां<ref>बराबर</ref>।
जिन आंखों को मिलना हो, भला ख़ाक के दरमियां।
दो दिन अगर उन आंखों ने दुनियां में मेरी जां।
की नाज़ अदाओं की इशारात, तो फिर क्या हुआ?॥4॥

दुनियाँ में अगर हमको मिला तख़्ते सुलेमा।
तावे रहे सब जिन्नो परी आदमो मुर्गां।
जब तन से हवा हो गई वह पोदने सी जां।
फिर उड़ गई एक आन में सब हश्मतो<ref>शान शौकत</ref> सब शां।
ले शर्क़<ref>पूर्व</ref> से ता ग़र्ब<ref>पश्चिम, मग़रिब</ref> लगा हात, तो फिर क्या?॥5॥

दोलत में अगर हम हुए दाराओ सिकन्दर।
और सात विलायत पे किया हुक्म सरासर।
जब आई अजल फिरन रहा तख़्त ओ अफ़सर।
अस्पो<ref>घोड़ा</ref> शुतरो<ref>ऊंट</ref> फ़ीलो ख़रो<ref>हाथी और गधा</ref> नौबतो लश्कर।
गर कब्र तलक अपने चला सात, तो फिर क्या?॥6॥

कामिल हो अगर रोशनी की दिल की अंधेरी।
और बागे तसर्रुफ़<ref>विचारों का बाग</ref> से करिश्मात की फेरी।
जब आई अजल फिर न चली मेरी न तेरी।
आखि़र को जो देखा तो हुए ख़ाक की ढेरी।
दो दिन की हुईकश्फ़ो करामात, तो फिर क्या?॥7॥

तायर<ref>परिन्दा</ref> की तरह से उड़े हम गर्चे हवा पर।
या अर्ज़<ref>चौड़ाई</ref> को तै कर गए ग़ोता सा लगाकर।
दरिया पे चले ऐसे कि पाँ भी न हुए तर।
जब आई अजल, आह! तोएक दम में गए मर।
गर यह भी हुई हम में करामात, तो फिर क्या?॥8॥

हुजरे<ref>मस्जिद के पास का छोटा कमरा</ref> में अगर बैठ के हम हो गए दरवेश<ref>फ़क़ीर</ref>।
और चिल्ला कशी<ref>चालीस दिन तक एकान्त में बैठकर साधना करके</ref> करके हमेशा रहे दिलरेश<ref>परेशान</ref>।
आबिद<ref>इबादत करने वाला</ref> हुए, ज़ाहिद<ref>संयमी</ref> हुए, सरताज हक़ अन्देश<ref>सच्ची बात सोचने वाला</ref>।
जब आई अजल, एक रियाजत<ref>तपस्या</ref> न गई पेश।
मर-मर के जो की कोशिशे, ताआत<ref>आराधना</ref> तो फिर क्या?॥9॥

मैं पीके अगर हो गए, हम मस्तो ख़राबी।
हांेठो से जुदा की, न कभी मैं की गुलाबी।
की लाख तरह ऐश की मस्तीयो ख़राबी।
जब आई अजल, फिर वहीं उठ भागे शिताबी।
रिन्दों<ref>मस्त, उन्मत्त</ref> में हुए अहले ख़राबात, तो फिर क्या?॥10॥

आमिल हुए हम लाख अगर नक़्शे अजल से।
लोगों को बचाने लगे भूतों के ख़लल से।
जब आई अजल फिर न चला और अजल से।
दो दिन की जो ताबीजों फ़तीलाओ<ref>भूत और जिन उतारने वालों की बत्ती, वह चिराग में जलाकर प्रेतबाधा ग्रस्त को दिखाते हैं अनपढ़ लोग फ़लीतः भी बोलते हैं</ref> अमल से।
तसख़ीर किया आलमे जिन्नात, तो फिर क्या?॥11॥

पढ़ इल्मे रियाजी जो मुनज्जिम हुए धूमी।
पेशानी महो ज़हराओ बिरजीस की चूमी।
आखि़र को अजल सर के ऊपर आन के घूमी।
इस उम्र दो रोज़ा में अगर होके नजूमी।
सब छान लिए अर्ज़ो समाबात<ref>सम्पूर्ण, संसार, धरती आकाश</ref>, तो फिर क्या?॥12॥

गर हमने अतिब्बा<ref>हकीम</ref> हो तबाबत<ref>तिव, हिकमत</ref> की रक़म ली।
चीज़ और सिवा तिब के सर अंजाम के कम ली।
जब तन के उपर मर्ग ने आ डाल दी कमली।
एक दम में हवा हो गए सब नज़रीयो अमली।
थे याद जो असबाबो अलामात तो फिर क्या?॥13॥

गर अपना हुआ मनसबो<ref>पद</ref> जागीर का नक़्शा।
और एक को मर मर के मिला भीक का टुकड़ा।
क्या फ़र्क हुआ दोनों में जब मरना ही ठहरा।
उसने कोई दिनबैठ के आराम से खाया।
वह मांगता दर-दर फिर खै़रात तो फिर क्या?॥14॥

दुनियां में लगा मुफ़्लिसों दर्वेश से ता शाह।
सब ज़र<ref>सोना, दौलत</ref> के तबलगार हैं ले माही<ref>मछली</ref> से ता माह<ref>चांद</ref>।
मरता है कोई माल पे ढूंढ़े है कोई जाह<ref>मान-सम्मान</ref>।
दौलत ही का मिलना है बड़ी चीज़ ‘नज़ीर’ आह।
बिल्फ़र्ज<ref>मान लें</ref> हुई इससे मुलाक़ात तो फिर क्या?॥15॥

शब्दार्थ
<references/>