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दुपहर का गीत / प्रदीप शुक्ल

अभी रुआँसी दुपहर बोली
आई पता पूछती घर का
सुबह शाम के गीत बहुत हैं
कोई गीत नहीं दुपहर का

सबने लिखा सुबह है सुन्दर
और शाम है कितनी प्यारी
मैं बैठी ही रही, न जाने
कब आएगी मेरी बारी

लोगों ने बस तभी निहारा
जब संध्या का घूँघट सरका

धूप लिए दौडूँ मैं दिन भर
कहीं लोग भूखे ना सोएँ
सबको मिलें अन्न के दाने
बच्चे बूढ़े कहीं न रोएँ

गर्मी की दुपहर का लेकिन
नाम रखा लोगों ने डर का

हाँ, जाड़ों में कभी कभी
कुछ लोग मुझे पा कर ख़ुश होते
वरना पूरे बरस
भरी दुपहर का केवल रोना रोते

सुबह शाम में कुछ न मिलेगा
काम न होगा जो दिन भर का।