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दुपहर के नीम-अँधेरों में / दिनेश कुमार शुक्ल

तप रही टीन की छाया में
चलती चक्की का घना शोर
पत्थर को पीस रहा पत्थर
भर रहा धुआँ नीला-नीला
जहरीला घोंट रहा है दम

दुपहर के नीम-अँधेरों में
दुनिया घाटी-सी दिखती है
काले बादल से ढकी हुई
धुँधली उदास खोयी-खोयी
वह बहुत दूर यह बहुत पास
यह अभी उदय अब हुई अस्त

जैसे कोई खुशदिल मछली
पानी से उछल-उछल बाहर
आकर जा गिरती हो तट की
बालू में, फिर जल में

खा रहा कलाबाजी मानो
गूँजते गगन में गरुड युगल
यह दुनिया खेल कलन्दर का
या फिर
अधबनी कलाकृति है
है कौन भर रहा जो उदास
रंगों पर गहरे चटक रंग
वह आसपास के अपनों में से ही कोई
जो एक बार में लाँघ रहा
वर्षों के दुर्गम अन्तराल।