इने-गिने टप्पर चार
दुरसिंग के फल्या<ref>सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में बेतरतीब बसे छोटे-छोटे गाँव फळ्या (फल्या) या फलिये कहलाते हैं। इन फल्यों में आमतौर पर एक ही कुनबे के लोग रहते हैं और फल्या को उसके मुखिया के नाम से ही पुकारा जाता है। कई फल्यों में तो बमुश्किल दो-चार घर ही होते हैं। जंगल-पहाड़ियों में कहीं भी अपने टापरे बनाकर जीवन-यापन करने वाली इन अनुसूचित जनजातियों की अपनी परम्परागत संस्कृति और जीवन शैली होती है।</ref> में
उकताए हुए इन जंगलों की
ऊँची-नीची लहरदार बयड़ियों पर
किसी अचरज की तरह सीना-ताने ठन ठोक खड़े।
सड़क तो ख़ैर दूर की बात है
पगडण्डियाँ तक अपना पता भूल जाती हैं
यहाँ तक आते-आते
(बिजली तो जैसे अभी सदी भर से ज़्यादा
के फ़ासले पर है यहाँ से)
दुरसिंग के फल्या में भी सूरज उगता है
फल्या की छोटी बयड़ी के
बड़े महुए के पीछे से
और फैल जाता है सारी दुनिया में
दिन भर में दुनिया नाप लेने के संकल्प के साथ
देश-दुनिया के साथ
सूरज निगाह रखता है दुरसिंग के फल्या पर भी
सूरज दुरसिंग के टापरे के सुराखों से
अनाज के कणगों को टटोलता है
बर्तनों को खंगालता है देर तक
इस उम्मीद से कि
मिल जाए शायद रात का ही कुछ बचा-खुचा
दुरसिंग के खाली पेट की तरह बजता है
दुरसिंग के अनाज का खाली कणगा भी।
एल्यूमीनियम की दबी-कूचली प्लेटें
टापरे के बाहर धूप खाती पड़ी रहती है दिनभर
सूरज अपनी सम्पूर्ण निराशा के साथ
टापरा-टापरा
बयड़ी-बयड़ी
फल्या-फल्या भटकता है
फिर सूखी घास-फूस चरने लगता है
धूप जब मृतचैल-सी फैली होती है चारों तरफ
दुरसिंग फल्या के बच्चे
धूप के टुकड़ों का गोश्त इकट्ठा करते हैं अक्सर
और जब क्षयग्रस्त अँधेरा इन जंगलों में
दस्तक देने की सोचता भर है
उससे पहले ही
वे इस गोश्त को भुनकर खा जाते हैं।
अक्सर महुए के फूलों को भी
भूख के विकल्प में खुशी से चबा जाते हैं
दुरसिंग फल्या के बच्चे
और महुए-सा तीखा महकते रहते हैं दिन भर
नंग-धड़ंग
देह के पिंजर को
मामूली चिंदे से ढके बच्चे
पीटते हैं बरतन
बजाते है पेट
डराते हैं भूख को
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दुरसिंग के पास
न अपनी कोई कहानी है
न अपना कोई इतिहास
इतिहास तो क्या
उसके पास सुनाने के लिए
अपने पूर्वजों का कोई किस्सा तक नहीं है
विरासत में मिले अपने तीर-कामठी
और आदिम दुखों के सिवा
उसे तो महज इतना भर पता है
वह इसी जंगल का एक हिस्सा है
दुरसिंग की काली-साँवली पीठ
और पिण्डलियों की ठोस मज़बूती भी
इतना तो शर्तिया बता ही देती है
कि वह इसी मिट्टी की उपज है
और ये पहाड़
जिन्हें वह
देवताओं की तरह पूजता आया है
दरअस्ल उसके पूर्वज हैं।
उसके डोंगरिया देव हैं।
उसके भीलट हैं।
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दुरसिंग ने न दिल्ली का नाम सुना है
न भोपाल का
वो नहीं जानता
दिल्ली या भोपाल किस दिशा में है
और ये हैं आख़िर किस मर्ज़ की दवा
वो नहीं जानता
फल्या से दिल्ली या भोपाल की दूरी भी
वह तो सूखती बावड़ी और
प्यासे कंठ के बीच की दूरी जानता है
अपने सूखाग्रस्त खेत से
खाली पेट की दूरी जानता है बस
उसने तो नहीं सुना है दिल्ली या भोपाल का नाम
और ना ही उसे कोई गरज है
आपकी दिल्ली या हमारे भोपाल से
वह तो बस कभी-कभार
आकाश की ओर
निरीहता और मामूली गुस्से के साथ
अपनी पथराई आँखों से ताक भर लेता है
जब पूरे जेठ के बाद भी
उसे नज़र नहीं आता
कोई बादल का टुकड़ा
अपने फल्या की ओर आते हुए।
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बारिश जब शहरों को धोती
गाँवों को गलाती
दुरसिंग के फल्या में दस्तक देती है
तो
बारिश के साथ उम्मीद भी बरसती है
जो फल्या में भर देती है
नए हौंसले
नई उम्मीद
नया भरोसा
दूर तक फैला जंगल भी
अपने पूरे रंग में आ जाता है
घास-फूस से लेकर
चीड़-सागौन तक
नए मौसम की हवाओं के साथ
एक सूर-एक ताल में
वृंद गीत गाते हैं
‘पोले बोयड़े मारा डूरे,
इने बोयड़े तारा,
काय कारिने बुलाड़ो
सीटी दी ने बुलाड़ो’
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दुरसिंग नहीं जानता
अभी किसकी सरकार है
उसने सरकार को देखा नहीं है
आपदाओं की भाँति
उसने सिर्फ़ नाम भर सुना है सरकार का।
दुरसिंग नहीं जानता
उसका घर / परिवार / कुनबा / फल्या भी दर्ज़ है
सरकारी फ़ाइलों में।
उसका फल्या भी है आँकड़ा साठ का।
दुरसिंग नहीं जानता
संसद में अक्सर उसके नाम पर
कितना हो-हल्ला हुड़दंग मचता है
जितना बड़ा हंगामा
उतना बड़ा पैकेज
सालों से यह हंगामा जारी है
और सालों से वह
इस हंगामें से बेख़बर है
हंगामे की कोई गूँज
कभी नहीं पहुँची उसके फल्या तक।
दुरसिंग नहीं जानता
दुरसिंग नहीं जानता
वह हर चुनाव में मतदाता भी रहा है
मय अपने बालिग हो चुके पुत्रों और बहुओं सहित
और एक मतदाता के रूप में
उसकी मुहर सदा सत्ता के पक्ष में लगी है।
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दुरसिंग नहीं जानता
क्यों बिन बुलाए मेहमान
उसके घर तक चले आते हैं
कोई उसके गले में क्रास टाँग जाता है
तो कोई उसके टापरे में
बजरंग बली की तस्वीर
दुरसिंग समझ नहीं पाता
ये लोग रास्ता भटक जाते हैं
या ‘भटके हुए लोग’ हैं।
उसे अपने फल्या में
इन अनचाहें मेहमानों का आना
भला तो लगता है
पर किसी अजाने भय से
उसकी पिण्डलियाँ भी काँप जाती है
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फल्या के चारों ओर फैले
इन दुर्गम-दुरूह पहाड़ों पर चढ़ना
हम शहरातियों के लिए भले ही ‘एक्साइटमेंट’ हो
दुरसिंग की बहुएँ दिन में दो दफा
इन्हें लाँघकर पीने का पानी भर लाती हैं
‘कालबयड़ी’ के तलाव से।
दुरसिंग भी कोस चार कोस यूँ नाप जाता है
गोया ‘वाकिंग डिस्टेन्स’ हो जैसे।
साप्ताहिक हाट-बाजार में जाता भी है वह
मीलों पैदल चलकर।
दुरसिंग के फल्या में आधुनिक विज्ञान का
कोई चमत्कार चिन्ह न हो
लेकिन यहाँ
न आत्मा रेहन रखने का रिवाज है
न सुविधाओं के लिए होड़ है
न विलासिता
न आधुनिकता का ढोंग है
यहाँ न सेंसेक्स बढ़ने पर
आँखों में चमक आती है
न घटने पर पड़ता है दिल का दौरा
जीने के लिए जरूरी साज़ो-सामान
है ही कितना!
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क्या आपने भगोरिया<ref>भगोरिया - प्रमुख आदिवासी त्यौहार जो होली के पहले मनाया जाता है।</ref> के दिनों में
दुरसिंग के फल्या को देखा है!
भगोरिया
जंगल का फाग पर्व है।
भगोरिया
आदिम अनुराग पर्व है।
भगोरिया
जीवन-राग पर्व है।
भगोरिया के दिनों में
दुरसिंग फल्या की रंगत
देखते ही बनती है।
फल्या के लोग
भूलकर अपने
सब दुःख-तकलीफ-अभाव
महुए की देशी शराब के नशे में
माँदल की थाप पर
थिरकते हैं अनथक
एक दूसरे के हाथों में हाथ डाले
और उनके साथ
महुए की मदमस्त गंध से
सरोबार हो
झूम उठता है पूरा जंगल
पहाड़-पेड़-पाखी-पवन भी
‘पुरी लींबुड़ी नी छाया मती जाय वऽ
लींबुड़ी मुरे आवली।
पुरी लींबुड़ी नो फल मति खाय वऽ
लींबुड़ी मुरे आवली। ’