मन बास न कहिये क्यों कर जी है काशी नगरी बरसन की।
है तीरथ ज्ञानी ध्यानी का हर पंडित और धुन सरसन की॥
जो बसने हारे दूर के हैं यह भूमि है उन मन तरसन की।
उस देवी देवनी नटखट के है चाह चरन के परसन की॥
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥1॥
उस मंडल ऊंचे गुम्मट में जो देवी आप विराजत हैं।
तन अवरन ऐसे झलकत हैं जो देख चन्द्रमा लाजत है॥
धुन पूजन घंटन की ऐसी नित नौबत मानों बाजत हैं।
उस सुन्दर मूरत देवी का जो बरनन हो सब छाजत हैं॥
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥2॥
जो मेहेर सुने उस देवी की, वह दूर दिसा से धावत है।
जो ध्यान लगाकर आवत है, सब वा की आस पुजावत है।
जब किरपा वा की होवत है, सब वा के दरसन पावत है।
मुख देखत ही वा मूरति का, तन मन से सीसस नवावत है।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥3॥
जो नेमी हैं वा मूरति के, वह उनकी बात सुधारिन है।
सुख चैन जो बातें मांगत हैं, वह उनकी चिन्ता हारिन हैं।
हर ज्ञानी वा की सरनन है, हर ध्यानी साधु उधारिन हैं।
जो सेवक हैं वा मूरति के, वह उनके काज संवारिन है।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥4॥
जब होली पाछे उस जगह, दिन आकर मंगल होता है।
हर चार तरफ़ उस देवल में, अंबोह समंगल होता है।
टुक देखो जिधर भी आंख उठा, नर नारी का दल होता है।
हर मन में मंगल होता है, आनन्द बिरछ फल होता है।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥5॥
जो बाग़ लगे हैं मन्दिर तक, वह लोगों से सब भरते हैं।
वह चुहलें होती हैं जितनी, सब मन के रंज बिसरते हैं।
कुछ बैठे हैं ख़ुश वक्ती से, दिल ऐशो तरब पर धरते हैं।
कुछ देख बहारे खूवां की, साथ उनके सैरें करते हैं।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥6॥
जो चीजे़ं मेलों बिकती हैं, सब उस जा आन झमकती हैं।
पोशाकें जिनकी ज़र्री हैं, वह तन पर खूब झलकती हैं।
महबूबों से भी हुस्नों की, हर आन निगाहें तकती हैं।
लूं नाम ‘नज़ीर’ अब किस-किस का, जो खूबियां आन झमकती हैं।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥7॥