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दुर्घटना / मानबहादुर सिंह

सड़क की दाईं पटरी पर
घण्टों तड़प ठण्डी पड़ी देह
आदमी होने की सारी शिनाख़्त के बावजूद
अपनी औक़ात में
एक पथेरा की आकस्मिक मृत्यु थी
जिसके सीने पर से हचक के गुज़री ट्रक
अब किसी मालगोदाम के आगे
खड़ी होगी धुली-पुँछी...

दुर्घटना के बारह घण्टे बाद भी
उसी जगह पड़ी लाश
अड़सठ करोड़ लोगों के बीच कितनी अनाथ थी
इस आध्यात्म को चरितार्थ करती
कि देह माटी है जिसे पुराने वस्त की तरह
फेंक दिया जाता है ।
वैसे उसकी देह को आधा ढँके चिथड़ा धोती
ख़ून से लिथड़ी अभी तक चिपकी है उसके पेट से --

भट्ठे पर काम करने वाला मज़दूर
आदमी की वह हस्ती नहीं जी सकता
जैसा आप किसी के लिए सोचते हैं !

सड़क के किनारे खड़े पेड़ अपनी फटी छाया से
उसकी चिंथी देह ढकने की कोशिश में
दो-चार सूखे पत्ते गिरा मौन थे ।

कोई भी दुर्घटना चाहे जिसके साथ हो
सिर्फ़ दुर्घटना है -- दुखद और भयावह
पर उसका बड़ा होना उस आदमी की जगह तय करता है
जिस पर वह होता है
क्योंकि आदमी अब कहाँ बचा जीवन
उसकी तौल तो टेंट के वज़न पर होती है ।
यदि जीवनपने में प्रकृति की
अनादि जिजीविषा का अंजाम है तो
एक पथेरे और अमिताभ बच्चन की मरणासन्न देहों को
कौन सा तर्क
सड़क और संसद भवन की दूरी पर रख जाता है ?

उसके ख़िलाफ़ लड़ना
क्या आदमी के हक़ के लिए ज़रूरी नहीं ?