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दुविधा / संगीता गुप्ता


अंदर उठते
हाहाकार
कंठ में अटके जहर
षडयंत्र में सुलगते
तन - मन
अब - तब फटने को
उद्यत मस्तिष्क की
ज्वालामुखी को
विस्मृत कर -
प्रेम में
सुध - बुध खो देना
चाहती हूँ

यह आकांक्षा
कैसी पगली
कितनी उत्कट
और अदम्य है -
अपने समय व काल से
पलायन को
उकसाती, ललचाती
तुम्हारे चुम्बकीय आकर्षण में
आकंठ लिप्त हो जाने को
अवश - विवश करती

क्या सच से
आंखे फेर लूं
यथार्थ से मुंह मोड़ लूं
अपना टूटा - फूटा मैं
तुम्हें सौंप
सो जाऊं
निश्चिन्तता की नींद

यह सब
कितना आसान होगा
मेरी समस्याओं का
सरलतम समाधान
शुतुरमुर्ग की तरह
अपने अंदर गुम हो जाऊं
या फिर
तुम्हारी आंखो से
अपनी आंखों तक
इन्द्रधनुषी सपनों का
ताना - बाना रच लूं
चाहते
जानते और समझते हुए भी
ऐसा कर नहीं पाती
प्रेम नहीं
पलायन होगा यह