कथी के डाह,
कोॅन बातोॅ के दुश्मनी
जे फाँड़ोॅ कसलेॅ होलोॅ छै ग्रीष्में
एक्के साथ
बरसा, शिशिर आरो वसन्त सेॅ
बदला लै के,
तहीं सेॅ तेॅ बदली केॅ राखी देलेॅ छै
मौसम के मिजाज
जहाँ-जहाँ भरलोॅ छेलै पानी
की नद्दी
की झील
की पोखर
की कुइयाँ
सब्भे तेॅ सूखी गेलै
ग्रीष्म के तमतमैथें।
शिशिर के सूर्य आबेॅ मनेॅ हँकाय
पूस के पानी आबेॅ ललचाय
फागुन के चिड़ैयां रौद छोड़ी
खोजै छै छाया
दिन के बदला राते ठो प्यारोॅ
गर्मी के केन्होॅ ई माया
कुल तक के विधि-विधान
सब कुछ निपैलै-पुतैलै
ई ग्रीष्म की ऐलै!