ताली बजी, सुनयना भागी शयन-कक्ष में आयी
देखा-करवट बदल रही है शैय्या पर तरुणाई
यह असीम बेचैनी, यह दुर्दान्त भार पीड़ा का
बिंधा पड़ा है प्रेम-वाण से रोम-रोम व्रीड़ा का
नत मस्तक, करबद्ध, देखती नयन-कोर से दासी
तिमिर-जाल में फँसी, मीन-सी तड़पे पूरणमासी
खुले अधमुँदे नयन,सुनयना को वासव ने देखा
मुरझाये मुख-मंडल पर उग गयी कांति की रेखा
सुनो सुनयने! यमुना-तट पर एक भिक्षु आया है
सच कहती हूँ, प्रथम-प्रथम वह पुरुष बहुत भाया है
नहीं जानती कौन,कहाँ से आया है सन्यासी
से देख कर लगा कि मैं नख-नख हो गयी सुरा-सी
स्वाति-बूँद-सा लगा मुझे वह, हृदय उसे दे बैठी
बदल में बेचैन प्रतीक्षा की घ्ड़ियाँ ले बैठी
जब से से देख आयी हूँ, पल भर चैन नहीं है
तरस रहे फिर-फिर दर्शन को,वशमें नैन नहीं हैं
अंतरंग तू मेरी तुझ से बात छिपाऊँ कैसे
तन-मन वही छोड़ आयी हूँ क्या बतलाऊँ कैसे
जा सत्वर उस भिक्षुक को तू शीघ्र बुला ला री!
रुक न एक पल को भी, सत्वर जा री! सत्वर जा री!
मेघदूत बन दूर रामगिरि पर तुम्हे जाना है
इसी नगर की कालिन्दी के कूल उसे पाना है
रवि होने के उदित,स्नान क हेतु लोग आयेंगे
नयन तुम्हारे उनमें उसको ढूँढ़ कहाँ पायेंगे
कह,कैसे अपने दृग दे दूँजिनमे वह छाया है
नहीं गौर है, नहीं श्याम, वह कंचन सी काया है
उन्नत दिव्य ललाट,वस्त्र गैरिक तन पर धारे है
बौद्ध भिक्षु है, नख-शिख सुन्दर,नयन बहुत प्यारे हैं
दूर मंदिरों-घाटों से, एकान्त नदी के तट पर
ध्यान-मग्न बैठा होगा वह अपने से ही हट कर
सर्वाधिक सुन्दर मनुष्य जो तुमको पड़े दिखाई
होगा वही, काम आयेगी पर तेरी चतुराई
जा, मेरा मन कहता है वह निश्चय तुझे मिलेगा
उसे देख ही मन तेरा कमल सदृश्य खिलेगा
पलकें नहीं गिरें जिसको लख, रति भी बलि-बलि जाये
रोम-रोम मेरा पुकारता-कब आये, कब आये
जा, सत्वर जा, लगा न अब तू क्षण भर की भी देरी
देख, देख क्या दशा हो रही सखी सुनयना! मेरी
प्रथम दृष्टि में हीं वह मेरे मन में समा गया है
जीवन में इस मधुर गुदगुदी का यह बोध नया है
मन के उपवन मेंऐसी आँधी न कभी आयी थी
किसी पुरुष की छवि मुझको इस भाँति नहीं भायी थी
आकर्षण का पुंज नहीं पृथ्वी पर ऐसा नर है
लगता सुर नहीं,नहीं लगता कोई किन्नर है
स्वर्ग लोक से भी ऊँपर कोई संसार इतर है
उतरा री! इस धरा धाम पर उससे ही वह नर है
कह सारथि से,शीघ्र, सवेग तुझे वह लेकर जाये
भिक्षुक को लेकर मझ तक सत्वर से सत्वर आये
ज तक लौटोगी न, प्रतीक्षा के क्षण भार रहेंगे
मेरे प्राण मिलन के भूखे दःसह पीर सहेंगे
पीड़ा-भार अपार, चुटकियों ने ज्यों कली मसल दी
किसने कंकर फेेंक शांत सर को ऐसी हलचल दी
जीवन में यह प्रथम घटी घटना क्यों अघटित ऐसी
हुई नहीं वासव जीवन में थी उद्वेलित ऐसी
किन्तु, नहीं क्या स्वाभाविक है प्रेम-प्रणय का होना
आवश्यक तो नहीं अकेले ही जीवन का ढ़ोना
अचरज क्या है यदि वासव ने किसी पुरुष को चाहा
यह तो नारी-जीवन का धर्म निबाहा
किन्तु, बादलों पर बैठी थी नयना, नहीं सुरथ पर
रथ बढ़ता जाता, पर मन पीछे मुड़- मुड़ जाता है
ऐसा क्यो होता, रहस्य मन समझ नहीं पाता है
भीतर-भीतर कहीं हुत गहरे उठ रहा धुआँ-सा
रवि-प्रकाश पर लगे कि हल्का छाया नरम कुहासा
शैशव से मैं संग रही हूँ, पात-पात डोली हूँ
इतनी बड़ी भीड़ में केवल मैं ही मुँहबोली हूँ
सिवा स्वामिनी के मेरे मन में न आ सका कोई
जब भी हृदय दुखा, वासव से लिपट कर रोई
जैसे उसका नहीं सगा कोई भी है भूतल में
उसी भाँति मेरी भी कोई सृष्टि नहीं जल-थल में
है ऐसा तो नहीं प्रेम कर मुझसे हुआ अनय है ?
धीरे-धाीरे मन-अंजलि में हुआ पुष्प संचय है ?
यदि है ऐसी बात-स्वामिनी क्या सोचेगी मन में
क्या न गरल घुल जायेगा हम दोनो के जीवन में
बढ़ा जा रहा रथ, पहियो के साथ घुमता मन है
भीतर कहीं बहुत भीतर सुलगी यह कौन जलन है
अहा!जलन के मारे उसका हृदय सुलगता क्यों है
यह संदेशवाहिका बनना दुःसह लगता क्यों है
यह उत्साह,विकल अकुलाहट मंद हो रही कैसे
अनजानी पुरवा से रिमझिम बंद हो रही कैसे
यह अनजानी पुरवा मनमे कौन कहाँ से आयी
यह क्या होने लगा हृदय में, समझ नहीं कुछ पायी
लगा नाचने भृत्य-धर्म,कर्त्तव्य नयन के आगे
टूट-टूट, फिर-फिर जुड़ जाते आकर्षण के धागे
ज्योंही मन में,भिक्षुक की, अनदेखी छवि आती है
पता नहीं क्यो नयना क्षण भर सिहर -सिहर जाती है
देती है आदेश सारथी को सत्वर चलने का
हो जाता आरंभ किन्तु, क्रम फिर लौ के जलने का
पुनः जलन सी उठी, हृदय में चिनगारी-सी फूटी
टूट गयी कर्त्तव्य-भाव-श्रृंखला, अर्गला टूटी
हृदय-द्वार खुल गये, छिपी एषणा, विहँस कर, डोली
मत्त विचार-करो ने छिप कंचुकी प्रिया की खोली
यह क्या ? यह क्या ? चौक सुनयना हुई चकित, विस्मित है
क्या यह मेरी गुप्त चाहना वासव को अर्पित है!
यह अनंग की छाया क्यों पल रही हृदय में मेरे!
कहीं स्वामिनी ने लक्षित कर लिया भाव यह मेरा
क्या सोचेगी! भला! घृणा का पड़ जाएगा घेरा
सँभल, सँभल, घायल मन! जलन शांत कर अपनी
मत छू हृदय व्याम का,ेख पद-तले की ही अवनी
एक सहारा, सम्बल एक मिला है जो जीवन में
उसको छोड़ भला भटकूँगी कहाँ कहाँ त्रिभुवन में
मेरा तो तन-मन-धन जीवन वासव से लिपटा है
मेरा भाव-जगत वासव की मुट्ठी में सिमटा है
वह मेरी अराध्य, साँस की साँस, हृदय-धड़कन है
मेरे रंध्र-रंध्र में उसकी साँसो करा गुंजन है
लगता है मैने उनको समझा नितान्त अपना है
पर विश्वास डगमगाता है, टुट रहा सपना है
जो मेरी थी, केवल मेरी, नहीं विघ्न-बाधा थी
वह थी मेरी कृष्ण-कैन्हया, मैं उसकी राधा थी
लगता है भुकम्प आ गया है मेरे जीवन में
सन्यासी समर्थ सेनानी-सा कूदा है रण में
प्रेम युद्ध में, लगता है मैं निश्चय ही हारूँगी
अपने ही हाथों अपना यह प्रेम-पुरुष मारूँगी
यह क्या हुआ अचानक, वासव ने अनहानी कर दी
कौन भाग्यशाली है सिकी झोली सुख से भर दी
कैसा होगा वह सन्यासी! सुर-किन्नर सब फीके
उतरेगी आरती, जलंेगे दीप भाल में घी के
सोच-सोच कर दासी विस्मय से भर-भर जाती है
जिज्ञासा का नहीं एक भी समाधान पाती है
हलचल से मन भरा, डाह, ईर्ष्या का दुंद घना है
नारी ही नारी पर मोहित,अति विचित्र रचना है
सन्यासी यह कौन,प्रिया का हृदय चुराने वाला
अनायास वासव के उर मे उतर, रिझाने वाला
जैसे किसी सौत की खातिर आग सुलग जाती है
उसी भाँति नयना के मन की दशा हुई आती है
फिर भी मन को मार, सेविका का कर्त्तव्य निभाने
चली जा रही नयना, विखरे मोती के कुछ दाने
ये दाने अनमोल बहुत है, अनायास झरते हैं
नारी-जीवन के कुहरे को और घना करते हैं
भरा जटिलता से रहस्यमय नारी का जो मन है
थाह मिले उसको कैसे जो दाता नहीं, कृपण है
इस उलझे -सुलझे जीवन को समझ वही पाते हैं
नर होकर भी जो भीतर से नारी बन जाते हैं