Last modified on 17 दिसम्बर 2009, at 10:25

दूर गई हरियाली / माखनलाल चतुर्वेदी

एक मौत पर, दूजे दिल पर, और तीसरे ’उन पर’ आली,
मेरा बस न चलाये चलता, साधें रीतीं, आँखें खाली!
अब तो दूर गई हरियाली

बिजली का सिर चढ़ चढ़ जाना,
श्याम घनों का गल-गल गिरना,
कैसे दो वरदान, मिले हैं,
उन्हें गरजना, मेरा झरना।

ज्वारों से बेकाबू वे सखि,
आहों-सी लाचारी मेरी;
आह और आँसू जैसी है,
प्रणय विवशता उनकी मेरी।

काले नभ में खेल रहे हैं,
सूरज, चन्दा, झिलमिल तारे;
कैसे सुन्दरता खोएँगे,
वे पुतली के वासी प्यारे!

चिडियाँ चहक-चहक उठती हैं, ऊषा की लख आली आली,
किन्तु लाल की लाली से यह जी की डाल नहीं मतवाली।
अब तो दूर गई हरियाली

रचनाकाल: खण्डवा-१९५१