दूर से आते ठहाके,
रह गए हम कसमसाके।
बियावानों, कंदराओं,
खंडहर होती गढ़ी से,
कुरु-सभाओं से सतत या
अतिक्रमित सीतामढी से;
वन नहीं आबादियों में
कर रहे हैं लोग हाँके।
क्या पता ये हास के,
परिहास के या व्यंग्य के हैं,
या अमन की घाटियों में
कनसुरे स्वर जंग के हैं;
आज तक आए नहीं
खोटे समय हमको बताके।
मौत के बरअक्स बरहम
चुप्पियाँ साधे हुए हम,
मुल्क़ की तो खैर संतो!
खुद-ब-खुद आधे हुए हम;
खोदनेवाले कभी भी
कब्र में अपनी न झाँके।
दूर से आते ठहाके,
रह गए हम कसमसाके।