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दूर हों या पास / प्रेमचन्द गांधी

कितनी लम्बी दूरियाँ हैं
और कितनी सीमाएँ हैं हमारे बीच कि
जब दर्द से फटा जा रहा हो तुम्हारा सिर
मैं कुछ नहीं कर सकता
सिवा सांत्वना के दो शब्द कहने के
जब तुम्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है मेरी
मैं तुम्हारे पास नहीं होता
जब तुम्हें चाहिये होता है मेरा हाथ
मैं नहीं होता अक्सर तुम्हारे साथ
कितनी भोली और भली हो तुम
जो सहज ही कर लेती हो मुझ पर विश्वास
मैं नहीं जानता
कैसे काम कर जाते हैं मेरे कुछ शब्द
तेज़ बुखार या भयानक सरदर्द में
मेरे जुकाम पर घर को अस्पताल बना देने वाली
मेरी बातों से क्यों बहल जाती हो
इतना भोलापन अच्छा नहीं
कब समझोगी तुम कि
मेरे शब्द पुरुषोचित संजीदगी से ज़्यादा कुछ नहीं
तुम्हारे साथ या पास होकर भी मैं क्या कर लेता
सर दबा देता या माथा चूम लेता
और तुम ख़ुश हो जाती

हम दूर हों या पास मगर एक साथ
एक विश्वास भरे स्पर्श या चुम्बन की प्रतीक्षा में
ज़िंदगी जीने का रोज़ाना अभ्यास करते हैं