दूसरों पर हँस लिए, आओ ज़रा खुद पर हँसें,
छोड़कर तटबंध उथले, और हम गहरे धँसें।
याद में क्यों गर्क़ हों डूबे सफ़ीनों की,
भूल जाएँ पीर हम बीते दिनों की;
जी लिए, गर भूत से पीछा न छूटा-
ख़बर रखनी है हमें अपनी ज़मीनों की।
लाजिमी है हम सही बोलें, फूल जाएँ नसें।
नीम धोखेबाज ये धारा ज़माने की,
फिक्र खाने से कहीं ज्यादा कमाने की;
क्या करें ये हवाएँ ही बह रहीं उलटी
क्या पता, क्या आखिरत हो फ़साने की।
जाल में हम मुक्तिकामी इरादे लेकर फँसें।
पैर उखड़ें, बाजुओं के भरोसे होंगे,
दिल मिलेंगे, किंतु कुचले मसोसे होंगे;
विजय को भी पराजय का बोध होगा-
जब किसी सज़दे, रुकू पर गँड़ासे होंगे।
ढील देने से न होगा, कुछ कमर अपनी कसें।