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दू मुक्तक / चन्देश्वर प्रसाद शर्मा 'परवाना'

जरत दियना त कबों बुतइबे करी।
सुरुज भोरे के साँझे लुकइबे करी।
जवन माई सुतवले रहसि ठोस के,
उहे माई नू हमके जगइबे करी॥
एह चन्दन एह छाया, एह माला से का।
मन रही साँच तब गोर-काला से का।
अपनापन सब मकं जब घरवा कहए लेई।
अपना धन के खजाना में ताला से का॥