राग नट
देखी ग्वालि जमुना जात ।
आपु ता घर गए पूछत, कौन है, कहि बात ॥
जाइ देखे भवन भीतर , ग्वाल-बालक दोइ ।
भीर देखत अति डराने, दुहुनि दीन्हौं रोइ ॥
ग्वाल के काँधैं चड़े तब, लिए छींके उतारि ।
दह्यौ-माखन खात सब मिलि,दूध दीन्हौं डारि ॥
बच्छ ल सब छोरि दीन्हें, गए बन समुहाइ ।
छिरकि लरिकनि महीं सौं भरि, ग्वाल दए चलाइ ॥
देखि आवत सखी घर कौं, सखनि कह्यौ जु दौरि ।
आनि देखे स्याम घर मैं, भई ठाढ़ी पौरि ॥
प्रेम अंतर, रिस भरे मुख, जुवति बूझति बात ।
चितै मुख तन-सुधि बिसारी, कियौ उर नख-घात ॥
अतिहिं रस-बस भई ग्वालिनि, गेह-देह बिसारि ।
सूर-प्रभु-भुज गहे ल्याई, महरि पैं अनुसारि ॥
भावार्थ :-- (श्यामसुन्दर ने) देखा कि गोपी यमुना जी जा रही है तो स्वयं यह बात पूछते हुए कि `यहाँ कौन है ?' उसके घर में चले गये । घर के भीतर जाकर देखा कि वह वहाँ दो गोपशिशु हैं । (बालकों की) भीड़ देखकर वे दोनों शिशु बहुत डर गये और रो पड़े । तब, श्यामसुन्दर एक गोपसखा के कंधेपर चढ़ गये और उन्होंने छींके उतार लिये । सब मिलकर दही और मक्खन खाने लगे तथा दूध गिरा दिया । उसके सभी बछड़ों को खोल दिया, वे सब एकत्र होकर वन में भाग गये । दोनों शिशुओं को मट्ठा छिड़ककर उससे सराबोर करके गोपसखाओं को आगे बढ़ा दिया । उस सखी (गोपी) को आते देखकर सखाओं ने भागते हुए उससे (सारा समाचार) कह दिया । गोपी ने आकर जो अपने घर में श्यामसुन्दर को देखा तो दरवाजे पर (मार्ग रोकर) खड़ी हो गयी । (उसके) हृदय में तो प्रेम था, किंतु मुख पर क्रोध लाकर उस गोपी ने सारी बात पूछी । किंतु मोहन के मुख को देखकर वह अपने शरीर की सुधि ही भूल गयी, तभी श्यामसुन्दर ने (चिढ़ाने के लिये) उसके वक्षःस्थल पर नख से आघात किया । (अब तो) गोपी रस के अत्यन्त वश हो गयी, अपने शरीर और (सूने)घर को भी वह भूल गयी । सूरदास जी कहते हैं कि वह मेरे स्वामी का हाथ पकड़कर उन्हें अपने साथ व्रजरानी के पास ले आयी ॥