देखी तेरी दिल्ली मैंने, देखे तेरे लोग ।
तरह-तरह के रोगी भोगें राजयोग का भोग ।
हर दुकान पर कोका कोला, पेप्सी की बौछार
फिर भी कई दिनों का प्यासा मरा राम औतार ।
कोशिश की पर नागफाँस को तोड़ न पाया भाग
अब भी उँगली पर चुनाव का लगा हुआ है दाग ।
भूख-प्यास से मरता कोई? यह तो था संयोग ।
पाँच बरस पहले आया था घुरहू ख़स्ताहाल
अरबों में खेलता आजकल कैसा किया कमाल ।
तन बिकता औने-पौने औ’ मन कूड़े के भाव
जितना बड़ा नामवर, समझो उतना, बड़ा दलाल ।
जहाँ बिके ईमान-धरम, क्या बेचेंगे हम लोग?
देखा यहाँ जुगनुओं से रहते भयभीत दिनेश
सुना बुद्ध को देते अँगुलिमाल यहाँ उपदेश ।
पतझड़ चारों ओर, सिर्फ़ इस नगरी बसे बसन्त
ज़मींदार है दिल्ली, रैयत बाक़ी सारा देश ।
जनसेवा है मकड़जाल औ’ देशभक्ति है ढोंग ।