देखो, सजनी / कुमार रवींद्र

देखो, सजनी
एक फागुनी रँग का झोंका
         हमें छू रहा बार-बार है
 
थके हुए हम
यह जिद्दी है
बरस-दर-बरस यों ही करता
गाछ ज़वानी में रोपा था
वह पत्ता-पत्ता है झरता
 
ठूँठ देह को
इच्छाओं से ज़बरन भरती
                यह बयार है
 
कभी सगे थे
रँग गुलाल के
कनखी थी तब शोख तुम्हारी
इस झोंके के छूते ही
हो जाती थी ऋतु की तैयारी
 
बिना देह का
एक देव आता इस पर
            अब भी सवार है
 
हम हैं बूढ़े
दोष न इसका
यह तो सहज सभी को छूता
इसे क्या पता
कौन युवा है
किसका थका हुआ है बूता
 
सभी सुखी हों
इसी भाव से यह खड़काता
                 द्वार-द्वार है

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