राग गौरी
देखौ री नँद-नंदन आवत ।
बृंदाबन तैं धेनु-बृंद मैं बेनु अधर धरें गावत ।
तन घनस्याम कमल-दल-लोचन अंग-अंग छबि पावत ।
कारी-गोरी, धौरी-धूमरि लै- लै नाम बुलावत ॥
बाल गोपाल संग सब सोभित मिलि कर-पत्र बजावत ।
सूरदास मुख निरखतहीं सुख गोपी-प्रेम बढ़ावत ॥
(गोपियाँ कहती हैं-) `सखी , देखो ! नन्दनन्दन आ रहे हैं । वृन्दावन से लौटते हुए गायों के झुण्ड में ओष्ठ पर वंशी धरे वे गा रहे हैं । मेघ के समान श्याम शरीर है, कमलदल के समान नेत्र हैं, प्रत्येक अंग अत्यन्त शोभा दे रहा है । `काली ! लाल धौरी ! धूमरी !(कृष्णा! गौरी! कपिला! धूम्रा)' इस प्रकार नाम ले-लेकर गायों को बुलाते हैं । सब गोपबालक साथ में शोभित हैं, मिलकर (एक स्वर एवं लयसे) तालियाँ और पत्तों के बाजे बजाते हैं । सूरदास जी कहते हैं कि इनका तो मुख देखने से ही आनन्द होता है, ये गोपियों के प्रेम को बढ़ा रहे हैं ।