देख क्षितिज पर भरा चाँद, मन उमँगा, मैं ने भुजा बढ़ायी। हम दोनों के अन्तराल में कमी नहीं कुछ दी दिखलायी, किन्तु उधर, प्रतिकूल दिशा में, उसी भुजा की आलम्बित परछाईं अनायस बढ़, लील धरा को, क्षिति की सीमा तक जा छायी! शिलङ्, 1945